गुरुवार, 20 जुलाई 2017

नींद

मैं लेटी थी बिस्तर पर करवटें बदलते हुए |
पति के ख़र्राटे और घड़ी की टिक टिक मुझे विचलित कर रहे थे |
कल सुबह जल्दी भी उठना है सोंचकर मेरा मन और भी चिंतित था |
नींद क्यों कोसों दूर थी निगाहों से?

परेशान होकर मैं बिस्तर से उठी |
घर में घुप्प अँधेरा था |
चाँदनी खिड़की के रास्ते कमरे में हल्का उजाला फैलाये हुए थी |
दबे पाँव उठकर नीचे वाले कमरे में आयी |


बाहर गहरा सन्नाटा था |
पत्तों के हिलने की आवाज़ डरावनी लग रही थी |
बिजली जलाई |
सोफे पर रीडर्स डाइजेस्ट पड़ी हुई थी |
एक घंटा कब गुज़रा, पता भी ना चला |

अब थोड़ी नींद आने लगी थी |
सामने घड़ी देखी, रात के दो बज रहे थे |
गले में दुपट्टा ओढ़कर बिस्तर पर लेटी |
लेटते ही शायद नींद आ गयी |

चार घंटे बाद मोबाइल के अलार्म से नींद खुली |
झक्क मारकर बिस्तर से उठी |
काश कि थोड़ा और सो पाती |
ऐ खाँसी, तुम कब जाओगी ?